उर्दू शायरी में ‘आँसू’ : 2

तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप 

हर ‘आँसू’ यानी ‘अश्क’ की अपनी ही कहानी है। चाहे खुशी हो या ग़म, आँसू अपनी दोस्ती हमेशा ही शिद्दत से निभाते हैं। सत्यता यह है कि आँसू के खारे पानी में वह आग है जो दिल पर जमी बर्फ़ को गला देती है और उसके बाद आदमी अपने-आप को हमेशा ही हल्का और तरोताज़ा महसूस करता है।

पं० आनंद नारायण मुल्ला वर्ष 1901 में जन्मे और वर्ष 1997 में उनका निधन हुआ। पं० आनंद नारायण मुल्ला अत्यंत विद्वान थे तथा वे इलाहाबाद हाईकोर्ट में जस्टिस भी रहे। वे उर्दू ज़ुबान से बेपनाह मोहब्बत करते थे और उर्दू साहित्य में वे पुरज़ोर तरीके से  लखनऊ की नुमाइंदगी करते थे। आँसू यानी अश्क ज़ब्त करने की चीज़ है, नुमाइश की नहीं। इसी ख़याल को पिरोया है उन्होंने इस शेर में –

 

रोने वाले तुझे रोने का सलीक़ा ही नहीं,

अश्क पीने के लिए हैं कि बहाने के लिए।” 

असरार-उल-हक़ ‘मजाज़’ वर्ष 1911 में लखनऊ में पैदा हुये और वर्ष 1955 में उनका निधन हो गया। वे अग्रणी एवं प्रख्यात प्रगतिशील शायर थे और रोमांटिक और क्रांतिकारी नज़्मों के लिए प्रसिद्ध हैं। वे ऑल इंडिया रेडियो की पत्रिका “आवाज” के पहले संपादक थे। उनका यह शेर आँसुओं की कितनी खूबसूरती से नुमाइंदगी करता है –

 

फिर मिरी आँख हो गई नमनाक, 

फिर किसी ने मिज़ाज पूछा है।” 

नुशूर वाहिदी का जन्म वर्ष 1912 में हुआ और वर्ष 1983 में उनका इंतक़ाल हुआ। वे कानपुर से संबंध रखते थे। उनके अनेक मजमुये मंज़र-ए-आम पर आये जिनमें से ‘आतिशी-ओ-नाम’ व ‘अज़्म-ओ-मोहकम’ ख़ासे चर्चित हैं। आँसू पर उनका एक खूबसूरत शेर देखिये –

 

मेरी आँखों में हैं आँसू तेरे दामन में बहार, 

गुल बना सकता है तू शबनम बना सकता हूँ मैं।” 

मुईन अहसन जज़्बी का जन्म वर्ष 1912 में हुआ था और निधन वर्ष 2005 में। उनका संबंध अलीगढ़ से था। वे फ़ैज़ अहमद ‘फैज़’ के समकालीन शायर थे तथा उनका शुमार प्रमुख प्रगतिशील शायरों में किया जाता है। अपने क़लाम “मरने की दुआयें क्यूँ मांगू, जीने की तमन्ना कौन करे’ से भारी लोकप्रियता अर्जित की। आग और अश्कों का विशेष नाता है। अश्क आग बुझाते भी हैं और आग लगाते भी हैं। ज़रा उनके इस शेर की खूबसूरती देखिये –

 

जो आग लगाई थी तुम ने,

उस को तो बुझाया अश्कों ने,

जो अश्कों ने भड़काई है,

उस आग को ठंडा कौन करे।” 

कैफ़ी आज़मी का जन्म वर्ष 1919 में आज़मगढ़ में हुआ तथा वर्ष 2002 में उनकी मृत्यु मुबंई में हुई। वे उर्दू शायरी की उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते है जहाँ से वह आधुनिक शायरी की ओर मुड़ती है। वे अपने आप में एक संस्था थे। आँसू ग़म‌ की शिनाख़्त तो‌ करते ही हैं, कभी-कभी वे खुशियों का पता भी बताते हैं –

 

मुद्दत के बा’द उस ने जो की लुत्फ़ की निगाह, 

जी ख़ुश तो हो गया मगर आँसू निकल पड़े।”

मशहूर शायर ख़ुमार बाराबंकवी का जन्म भी वर्ष 1919 में हुआ था। उन्होंने फ़िल्मों में भी गीत लिखे। वे उर्दू शायरी में ऊँचे क़द के शायर थे जिन्हें सुनने के लिये लोग घंटों इंतज़ार करते थे। ‘आतिश-ए-तर’, ‘हदीस-ए-दीगरान’ एवं ‘रक़्स-ए-मय’ उनकी चर्चित किताबें हैं। उनकी मृत्यु वर्ष 1999 में हुई। उनका आँसू पर एक खूबसूरत शेर देखिये –

 

एक आँसू कह गया सब हाल दिल‌ का,

मैं समझा था कि ज़ालिम बेज़ुबाँ है।”

अनवर मिर्ज़ापुरी 1960-70 के दशक के प्रमुख मंचीय शायर थे और लोग उनको दिल थाम कर सुनते थे। उनकी अनेकों ग़ज़लें आज भी जन साधारण में अपनी पूरी शोख़ी के साथ जीवित हैं। उनकी मशहूर ग़ज़ल ‘मैं नज़र से पी रहा हूँ, यह समाँ बदल न जाये’ का एक ख़ास शेर आँसू के नाम –

 

मिरे अश्क भी हैं इस में, ये शराब उबल न जाए। 

मिरा जाम छूने वाले, तिरा हाथ जल न जाए।।” 

साहिर लुधियानवी का वास्तविक नाम अब्दुल हई था जिनका जन्म वर्ष 1921 में लुधियाना में हुआ था और वर्ष 1980 में उनका निधन मुबंई में हुआ। वे एक क़ामयाब शायर व गीतकार थे और अपनी बेहद मखमली और ख़ुशबूदार शायरी की बदौलत उन्होंने फ़िल्मी दुनिया के बेहतरीन गीतकार के रूप‌ में बरसों राज किया। आँसू अगर शबनम‌ हैं तो महबूब के गुलाब की तरह सुर्ख़ रुख़सार यक़ीनन शोले ही होंगे। देखिये तो ज़रा इन दोनों का मिलन साहिर के निराले अंदाज़ में –

 

उन के रुख़्सार पे ढलके हुए आँसू तौबा, 

मैं ने शबनम को भी शोलों पे मचलते देखा।”

नासिर काज़मी वर्ष 1923 में अंबाला (भारत) में जन्मे और वर्ष 1972 में लाहौर (पाकिस्तान) में उनका इंतक़ाल हुआ। वे साधारण शब्दों को अपनी शायरी में इस्तेमाल करते थे लेकिन अपने बेजोड़ हुनर से उनमें जान भर देते थे। आँसुओं का नाम लिये बग़ैर भी  उनके इस शेर में सारा कारनामा आँसुओं का ही है –

 

इस क़दर रोया हूँ तेरी याद में, 

आईने आँखों के धुँदले हो गए।”

 

और एक‌ यह शेर भी – 

 

इन को नासिर न कभी आंख से गिरने देना,

उनको लगते हैं मेरी आंख में प्यारे आंसू।”

मोहम्मद अल्वी अहमदाबाद, गुजरात में वर्ष 1927 में जन्मे एक कामयाब शायर हैं। ‘खाली मकान’, ‘आखिरी दिन की तलाश’, ‘तीसरी किताब’, ‘चौथा आसमान’ एवं ‘रात इधर उधर रोशन’ उनकी पुस्तकें हैं। छोटी बह्र में आँसू पर उनका यह शेर कितना खूबसूरत है –

 

रोज़ अच्छे नहीं लगते आँसू, 

ख़ास मौक़ों पे मज़ा देते हैं।” 

मुस्तफ़ा ज़ैदी का जन्म वर्ष 1929 में इलाहाबाद (प्रयागराज) में हुआ। वे पहले तेग़ इलाहाबादी के नाम से भी शायरी करते थे। पाकिस्तान बनने के बाद वे पाकिस्तान चले गये जहाँ वर्ष 1970 में रहस्यमयी हालातों में उनका क़त्ल हो गया। वे एक शानदार शायर थे और उनकी शायरी दिल की गहराई तक उतरती है। आँसू पर उनका यह बेहतरीन शेर देखें –

 

मिरी रूह की हक़ीक़त मिरे आँसुओं से पूछो, 

मिरा मज्लिसी तबस्सुम मिरा तर्जुमाँ नहीं है।” 

अहमद फ़राज़ का जन्म वर्ष 1931 में हुआ तथा वर्ष 2008 में उनका निधन हो गया। वे इस्लामाबाद, पाकिस्तान से संबंध रखते थे। वे अंतर्राष्ट्रीय स्तर व लोकप्रियता के शायर हैं। वे अपनी रूमानी और बाग़ी कविता के लिए प्रसिद्ध हैं। आँसू पर क्या खूब कहा है उन्होंने –

 

सिर्फ़ चेहरे की उदासी से भर आए आंसू फ़राज़,

दिल का आलम तो अभी आपने देखा ही नहीं।”

शहज़ाद अहमद लाहौर, पाकिस्तान के शायर हैं जो वर्ष 1932  में पैदा हुये और वर्ष 2012 में उनका इंतक़ाल हो गया। नई ग़ज़ल के प्रमुखतम पाकिस्तानी शायरों में उनका शुमार किया जाता है। आँसू दिल को तो तकलीफ़ देते ही हैं, आँखों की रोशनी भी छीन‌ लेते हैं। देखिये तो‌ उनका यह शेर –

 

अब अपने चेहरे पर दो पत्थर से सजाए फिरता हूँ, 

आँसू ले कर बेच दिया है आँखों की बीनाई को।”

अहमद मुश्ताक़ का जन्म वर्ष 1933 में हुआ। वे पाकिस्तान के सबसे विख्यात और प्रतिष्ठित आधुनिक शायरों में से एक‌ अपनी नव-क्लासिकी लय के लिए प्रसिद्ध हैं। उनके कई मजमुये मंज़र-ए-आम पर अये हैं जिनमें से ‘आँखें पुरानी हो गयी’ व ‘गर्द-ए-महताब’ विशेष रूप से चर्चित हैं। वर्तमान में वे संयुक्त राज्य अमेरिका में रहते हैं। आँसू कितने रूप दिखाता है, यह उनके इस शानदार शेर की विषय-वस्तु है-

 

बहता आँसू एक झलक में कितने रूप दिखाएगा, 

आँख से हो कर गाल भिगो कर मिट्टी में मिल जाएगा।

वर्ष 1933 में शकेब जलाली का जन्म अलीगढ़ में हुआ था। मात्र बत्तीस वर्ष की छोटी आयु में ही 1966 में उनका इंतक़ाल हो गया लेकिन इतने कम अरसे में भी जो वे उर्दू शायरी को दे गये, वह वास्तव में कमाल का है। आँसू शब्द का बगै़र प्रयोग किये वे आँसुओं पर क्या खूब कहते हैं – 

 

क्या कहूँ दीदा-ए-तर, यह तो मिरा चेहरा है,

संग कट जाते हैं, बारिश की जहाँ धार गिरे।”

सरवर आलम राज़ वर्ष 1935  में जबलपुर (भारत) में जन्मे और वर्तमान में टैक्सास (अमेरिका) में रहते हैं। उर्दू को रोमन शैली में विकसित करने का श्रेय उन्हें ही जाता है। उनके कई दीवान मंज़र-ए-आम‌ पर हैं जिनमें ‘रंग-ए-गुलनार’, ‘शहर-ए-निगार’ और ‘तीसरा हाथ’ चर्चित हैं। आँसू महबूब से कितना वाबस्ता हैं, यह इस शेर की विषय-वस्तु है-

 

आरज़ू हसरत और उम्मीद शिकायत आँसू,

इक तिरा ज़िक्र था और बीच में क्या क्या निकला”

बशीर बद्र वर्ष 1935 में जन्मे। मिर्ज़ा ग़ालिब के बाद वे ही ऐसे शायर हैं जिनके सबसे ज़्यादा शेर आम आदमी की ज़ुबान पर चढ़े हैं। उनके अनेक दीवान हैं जिनमें ‘धूप का चेहरा’, अल्लाह हाफ़िज़’, ‘रोशनी के घरौंदे’, ‘आहट’ और कोई हाथ भी न मिलायेगा’ विशेष रूप से चर्चित हैं। उनका भारत के सबसे लोकप्रिय शायरों में शुमार किया जाता है। आँसू पर उनके दो-एक खूबसूरत शेर देखिये –

 

शबनम के आँसू फूल पर, ये तो वही क़िस्सा हुआ। 

आँखें मिरी भीगी हुई, चेहरा तिरा उतरा हुआ ।।”

 

और एक यह शेर –

 

उदास आँखों से आँसू नहीं निकलते हैं।

ये मोतियों की तरह सीपियों में पलते हैं।।”

 

और एक शेर यह भी –

 

आँखें आँसू भरी, पलकें बोझल घनीं,

जैसे झीलें भी हों, नर्म साये भी हों।”

 

और यह शेर – 

 

वो तो कहिये कि उनको हँसी आ गई,

बच गये आज हम डूबते-डूबते।”

 

और चलते-चलते –

 

कोई बादल हो तो थम जाए मगर अश्क मिरे, 

एक रफ़्तार से दिन रात बराबर बरसे।”

क्रमशः

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